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भाग्य और कर्म





*भाग्य और कर्म*
भाग्य को है बनाता वही आदमी,
आत्म-विश्वास जिसमें है रहता जगा।
कंटकाकीर्ण राहों पर वो तो चले-
आत्म-विश्वास कष्टों को देता भगा।।

लाख बादल घिरे हों गगन में घने,
बिजलियाँ हों कड़कती क्षणे ही क्षणे।
धुंध  छाया  भले  ही  भयंकर  रहे,
वायु  तूफ़ानी  आवाज़  करती  बहे।
कर्मयोगी पुरुष भाग्य रचता हुआ-
राह पर अपनी चलता हुआ ही लगा।।
        आत्म-विश्वास कष्टों को देता भगा।।

भाग्य को अपनी मुट्ठी में रखकर चले,
व्यग्र  होता  नहीं  चल के मीलों  भले।
लक्ष्य  को  भेदना  लक्ष्य  उसका रहे,
मार्ग  में  ठोकरों  को  सदा  वो  सहे।
मार  मौसम  की खाता मुदित ही चले-
मन का उत्साह  उसका  न  देता  दगा।।
        आत्म-विश्वास कष्टों को देता भगा।।

कट  गईं  रातें  देखो  सवेरा  हुआ,
छँट गईं बदलियाँ सुख का फेरा हुआ।
लगी  मंद  बहने  पवन  हो के शीतल,
धुंध भी और छँटता दिखे पल  ही  पल।
मिले  संग  तकदीर  का  कर्मठी को-
कर्म  ही  कर्मयोगी  का  होता सगा।।
       आत्म-विश्वास कष्टों को देता भगा।।

यही  होता  बस  फ़लसफ़ा  ज़िंदगी  का,
भाग्य  है  दास  नित कर्म की वंदगी का।
कर्म  में  ही  तो  सारी  खुदाई  रहे,
ज्ञान  ग्रंथों  का  सारा  भी  ऐसा  कहे।
सोच  ऐसी  ही  जिसने  अपनाई  है-
जीवन उसका  खुशी  से गया जगमगा।।
       आत्म-विश्वास कष्टों को देता भगा।।
                  ©डॉ0हरि नाथ मिश्र
                      9919446372


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2 Comments

Sachin dev

22-Apr-2023 09:00 AM

Well done

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बेहतरीन रचना

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